गुरु कौन है?' (श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी के प्रवचन से)
असली गुरु वह होता है,जो दूसरेको अपना शिष्य नहीँ बनाता,प्रत्युत गुरु ही बनाता है अर्थात् तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त बना देता है,दुनियाका उद्धार करनेवाला बना देता है।
ऐसा गुरु गुरुओँकी टकसाल,खान होता है। वास्तवमेँ जो महापुरुष (गुरु) होते हैँ,वे शिष्य नहीँ बनाते।उनके भीतर यह भाव कभी रहता नहीँ कि कोई हमारा शिष्य बने तो हम बात बतायेँ।हाँ,उस महापुरुषसे जिनको ज्ञान मिला है,वे उसको अपना गुरु मान लेते हैँ।कोई माने,चाहे न माने, जिससे जितना ज्ञान मिला है, उस विषयमेँ वह गुरु हो ही गया। जिनसे हमेँ शिक्षा मिलती है,लाभ होता है,जीवनका सही रास्ता मिलता,ऐसे माता-पिता,शिक्षक,आचार्य आदि भी 'गुरु' शब्दके अंतर्गत आ जाते हैँ।
मनुष्य किसीको गुरु बनाकर कहता है कि 'मैँ सगुरा हो गया हूँ अर्थात् मैँने गुरु धारण कर लिया,मैँ निगुरा नहीँ रहा' और ऐसा मानकर वह संतोष कर लेता है तो उसकी उन्नतिमेँ बाधा लग जाती है।कारण कि वह और किसीको अपना गुरु मानेगा नही,दूसरोँका सत्संग करेगा नही,दूसरेका व्याख्यान,विवेचन सुनेगा नहीँ तो उसके कल्याणमेँ बड़ी बाधा लग जायगी।
वास्तवमेँ जो अपना कल्याण चाहते हैँ,वे किसीको गुरु बनाकर किसी जगह अटकते नहीँ,प्रत्युत अपने कल्याणके लिए जिज्ञासु बने ही रहते हैँ।जबतक बोध न हो,तबतक वे कभी संतोष करते ही नहीँ।इतना ही नहीँ,बोध हो जानेपर भी वे संतोष करते नहीँ,प्रत्युत संतोष हो जाता है।यह उनकी लाचारी है!
पुराने कर्मोँसे,प्रारब्धसे जो फल मिले,अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आये,उसमेँ तो संतोष करना चाहिए,पर आगे नया उद्योग (पुरुषार्थ) करनेमेँ,परमात्माकी प्राप्ति करनेमेँ कभी संतोष नहीँ करना चाहिए।अतः जबतक बोध न हो जाय,तबतक सच्चे जिज्ञासुको कहीँ भी अटकना नहीँ चाहिए,रुकना नहीँ चाहिए? यदि किसी महापुरुषके संगमेँ अथवा किसी संप्रदायमेँ रहनेसे बोध न हो तो उस संगको,सम्प्रदाय को बदलनेमेँ कोई दोष नहीँ है।संतोँने ऐसा किया है।यदि जिज्ञासा जोरदार हो और उस संगको अथवा सम्प्रदायको बदलना न होँ तो भगवान् जबर्दस्ती उसे बदल देते हैँ।बदलनेपर सब ठीक हो जाता है।
-श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी
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