Sunday, 21 June 2020

किसको गुरु मानें? (2) who is a guru (2)

जगद्गुरु भगवान अपनी प्राप्ति के लिए मनुष्य शरीर देते हैँ तो साथ मेँ विवेकरुपी गुरु भी देते है। भगवान अधूरा काम नहीँ करते। जैसे बड़े अफसरोँ को मकान, नौकर, मोटर आदि सब सुविधाएँ मिलती हैँ, ऐसे ही भगवान मनुष्य शरीर के साथ-साथ कल्याण की सब सामग्री भी देते हैँ। वे मनुष्य को 'विवेक' -रुपी गुरु देते हैँ, जिससे वह सत् और असत्, कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य, ठीक और बेठीक आदि को जान सकता है। इस विवेक से बढ़कर कोई गुरु नहीँ है। जो अपने विवेक का आदर करता है, उसको अपने कल्याण के लिए बाहरी गुरु की जरुरत नहीँ पड़ती। जो अपने विवेक का आदर नहीँ करता, वह बाहरी गुरु बनाकर भी अपना कल्याण नहीँ कर सकता। इसलिए बाहरी गुरु बनाने पर भी कल्याण नहीँ होता। मनुष्य जितना-जितना विवेक को महत्त्व देता है, उसको काम मेँ लाता है, उतना-उतना उसका विवेक बढ़ता जाता है और बढ़ते-बढ़ते वही विवेक तत्त्वज्ञान मेँ परिणत हो जाता है। विवेक का आदर गुरु बनाने से नहीँ होता, प्रत्युत सत्संग से होता है-'बिनु सतसंग बिबेक न होई' (मानस, बाल॰ 3.4)। अच्छे संत-महात्मा शिष्य नहीँ बनाते तो भी उनका सतसंग करने से उद्धार हो जाता है। उनके आचरणोँ से शिक्षा मिलती है, उनकी वाणी से शास्त्र बनते हैँ। अतः जहाँ अच्छा सत्संग मिले, अपने उद्धार की बात मिले, वहाँ सत्संग करना चाहिए, पर जहाँ तक बने गुरु-शिष्य का संबंध नहीँ जोड़ना चाहिए। मेवाड़ के राजा के चाचा थे- महाराज चतुरसिँहजी। वे सत्संग सुनते और उसमेँ कोई बढ़िया बात मिलती तो सुनते ही वहाँ से चल देते कि अब इस बात को काम मेँ लाना है। वे ऐसा निर्णय कर लेते कि अब यह बात हमारी उम्र से नहीँ निकलेगी। ऐसा करने से वे अच्छे संत हो गये। उन्होँने अनेक अच्छे ग्रंथोँ की रचना की और वे मेवाड़ी भाषा के वाल्मीकि कहलाये। इस तरह आपको जो भी अच्छी बात मिले, उसको ग्रहण करते जाओ तो आप भी संत हो जाओगे। 
                                     
                                             श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी

किसको गुरु मानें? (1) Who is a guru? (1)




गुरु कौन है?' (श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी के प्रवचन से)
असली गुरु वह होता है,जो दूसरेको अपना शिष्य नहीँ बनाता,प्रत्युत गुरु ही बनाता है अर्थात् तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त बना देता है,दुनियाका उद्धार करनेवाला बना देता है।
ऐसा गुरु गुरुओँकी टकसाल,खान होता है। वास्तवमेँ जो महापुरुष (गुरु) होते हैँ,वे शिष्य नहीँ बनाते।उनके भीतर यह भाव कभी रहता नहीँ कि कोई हमारा शिष्य बने तो हम बात बतायेँ।हाँ,उस महापुरुषसे जिनको ज्ञान मिला है,वे उसको अपना गुरु मान लेते हैँ।कोई माने,चाहे न माने, जिससे जितना ज्ञान मिला है, उस विषयमेँ वह गुरु हो ही गया। जिनसे हमेँ शिक्षा मिलती है,लाभ होता है,जीवनका सही रास्ता मिलता,ऐसे माता-पिता,शिक्षक,आचार्य आदि भी 'गुरु' शब्दके अंतर्गत आ जाते हैँ।
 
मनुष्य किसीको गुरु बनाकर कहता है कि 'मैँ सगुरा हो गया हूँ अर्थात् मैँने गुरु धारण कर लिया,मैँ निगुरा नहीँ रहा' और ऐसा मानकर वह संतोष कर लेता है तो उसकी उन्नतिमेँ बाधा लग जाती है।कारण कि वह और किसीको अपना गुरु मानेगा नही,दूसरोँका सत्संग करेगा नही,दूसरेका व्याख्यान,विवेचन सुनेगा नहीँ तो उसके कल्याणमेँ बड़ी बाधा लग जायगी।

वास्तवमेँ जो अपना कल्याण चाहते हैँ,वे किसीको गुरु बनाकर किसी जगह अटकते नहीँ,प्रत्युत अपने कल्याणके लिए जिज्ञासु बने ही रहते हैँ।जबतक बोध न हो,तबतक वे कभी संतोष करते ही नहीँ।इतना ही नहीँ,बोध हो जानेपर भी वे संतोष करते नहीँ,प्रत्युत संतोष हो जाता है।यह उनकी लाचारी है!

पुराने कर्मोँसे,प्रारब्धसे जो फल मिले,अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति आये,उसमेँ तो संतोष करना चाहिए,पर आगे नया उद्योग (पुरुषार्थ) करनेमेँ,परमात्माकी प्राप्ति करनेमेँ कभी संतोष नहीँ करना चाहिए।अतः जबतक बोध न हो जाय,तबतक सच्चे जिज्ञासुको कहीँ भी अटकना नहीँ चाहिए,रुकना नहीँ चाहिए? यदि किसी महापुरुषके संगमेँ अथवा किसी संप्रदायमेँ रहनेसे बोध न हो तो उस संगको,सम्प्रदाय को बदलनेमेँ कोई दोष नहीँ है।संतोँने ऐसा किया है।यदि जिज्ञासा जोरदार हो और उस संगको अथवा सम्प्रदायको बदलना न होँ तो भगवान् जबर्दस्ती उसे बदल देते हैँ।बदलनेपर सब ठीक हो जाता है।

                                          -श्रद्धेय स्वामी रामसुखदासजी