पुरुष स्त्री की जिस उन्मुक्तता से आकर्षित हो उसके प्रेम में पड़ता है विवाह के बाद वही उसे खटकने लग जाती है। बल्कि ज़्यादातर मामलो में ऐसा प्रेम(या प्रेम जैसी लगने वाली चीज़ ) विवाह की वेदी तक नहीं पहुंच पाता और अगर पहुंच भी जाए तो एक पुरुष के मन की कंदराओं में बसी पितृसत्तात्मक सोच जाग जाती है को अपनी संपत्ति समझ उसकी उस अभिव्यक्ति को कैद कर लेना चाहता है। एक स्त्री की स्वतंत्र सोच को हमारा समाज कभी नहीं स्वीकार पाता और यह भी सच है कि पुरुष जिसकी इस आधुनिकता के दम उसे समाज द्वारा बनायी गई सीमाये लांगने पर उकसाता है , उसे कभी अपने घर की दहलीज़ के अंदर नहीं लाता। ये प्रेम युवावस्था में देह की हांडी पर पकने वाला हो तो प्रेम विवाह के कुछ समय बाद ही इसकी गर्मी ठंडी पड़ जाती है। क्युकी शादी के पहले और बाद में फर्क आना लाज़मी भी है। पहले पहल प्रेम में नींद नहीं आती और आखे उनींदी सी रहती हैं और बाद में काम की थकान में आखे खुलती ही नहीं। प्रेम एक बादलो की धुंध में वादियों की तलहटी से होती अलसभोर का सपना है और विवाह उस सपने से जागने के बाद की सच्चाई। .......
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