Friday 19 June 2015

नारी स्वतंत्रता या सामाजिक दोगलापन

पुरुष स्त्री की जिस उन्मुक्तता से आकर्षित हो उसके प्रेम में पड़ता है विवाह के बाद वही उसे खटकने लग जाती है। बल्कि ज़्यादातर मामलो में ऐसा प्रेम(या प्रेम जैसी लगने वाली चीज़ ) विवाह की वेदी तक नहीं पहुंच पाता और अगर पहुंच भी जाए तो एक पुरुष के मन की कंदराओं में बसी पितृसत्तात्मक सोच जाग जाती है  को अपनी संपत्ति समझ उसकी उस अभिव्यक्ति को कैद   कर लेना चाहता है। एक स्त्री की स्वतंत्र सोच को हमारा समाज कभी नहीं स्वीकार पाता और यह भी सच है कि पुरुष जिसकी इस आधुनिकता के दम उसे समाज द्वारा बनायी गई सीमाये लांगने पर उकसाता है , उसे कभी अपने  घर की दहलीज़ के अंदर नहीं लाता। ये प्रेम युवावस्था में देह की हांडी पर पकने वाला हो तो प्रेम विवाह के कुछ समय बाद ही इसकी गर्मी ठंडी पड़  जाती है। क्युकी शादी के पहले और बाद में फर्क आना लाज़मी भी है। पहले पहल प्रेम में नींद नहीं आती और आखे उनींदी सी रहती हैं और बाद में काम की थकान में आखे खुलती ही नहीं। प्रेम एक बादलो की धुंध में वादियों की तलहटी से होती अलसभोर का सपना है और विवाह उस सपने से जागने के बाद की सच्चाई। .......

No comments:

Post a Comment